आज इस आर्टिकल में हम आपको अब्दुल करीम खान की जीवनी – Abdul Karim Khan Biography Hindi के बारे में बताएंगे।
अब्दुल करीम खान की जीवनी – Abdul Karim Khan Biography Hindi
Abdul Karim Khan 20वीं सदी के हिंदुस्तानी संगीत में सबसे महत्वपूर्ण हस्तियों में से एक है।
अब्दुल करीम खान भारतीय संगीत का प्रतिनिधित्व करते थे।
उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच में एक बांध की तरह थे।
दक्षिणी दक्षिण के कर्नाटक संगीत के कई इलाकों को उत्तर भारतीय संगीत में शामिल किया गया और सरगम के अलग अंदाज को उत्तर भारत में प्रचलित किया गया।
उनकी कल्पना विस्तृत और अनूठी थी।
जन्म – अब्दुल करीम खान की जीवनी
अब्दुल करीम खान का जन्म 10 नवंबर 1872 में किरना घराने में उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ।
उनका जन्म एक किराना संगीत परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम काले खान था।
अब्दुल करीम खान की पत्नी का नाम गफूरन था वह एक अन्य किरण मास्टर उस्ताद अब्दुल वाहिद खान की बहन थी।
जो उनका चचेरा भाई भी था।
अब्दुल करीम खाँ के तीन भाई थे उनका नाम अब्दुल लतीफ खान, अब्दुल मजीद खान और अब्दुल हक खान था।
उनके सबसे छोटे भाई अब्दुल हक खा की पुत्री रोशन आरा बेगम एक सुप्रसिद्ध गायिका थी
भारत के स्वतंत्रता के बाद रोशन आरा बेगम का गायन लखनऊ रेडियो के माध्यम से काफी लोकप्रिय हुआ था।
शिक्षा (प्रशिक्षण)
जन्म से ही सुरीले कंठों के धनी अब्दुल करीम खान के सीखने की गति इतनी तेज थी कि 6 साल की उम्र में ही संगीत-सभाओं में जाकर गाना गाने लगे।
करीम खान ने अपने चाचा अब्दुल्लाह खान और पिता काले खान से प्रशिक्षण ग्रहण किया।
उन्होंने एक और चाचा नन्हें खान से भी मार्गदर्शन प्राप्त किया।
उन्होने वोकल्स और सारंगी के अलावा उन्होंने वीणा, सितार और तबला बजाना भी सीखा।
करियर – अब्दुल करीम खान की जीवनी
शुरुआती वर्षों में वे अपने भाई अब्दुल हक के साथ गाते थे।
उनकी प्रतिमा इतनी असाधारण थी कि 15 साल की उम्र में बड़ौदा की अदालत में एक गायक के रूप में नियुक्त किया गया। वहां पर उनकी मुलाकात ताराबाई माने से हुई, जो सरदार मारुति राव माने की बेटी थीं, जो शाही परिवार की सदस्य थीं। जब उन्होंने शादी करने का फैसला किया, तो उन्हें बड़ौदा से बाहर कर दिया गया।
दंपति बंबई में बस गए। 1922 में ताराबाई माने ने अब्दुल करीम खान को छोड़ दिया, जिसका स्पष्ट रूप से उनके संगीत पर एक बड़ा प्रभाव था- जो इसे व्यापक और ध्यानपूर्ण बनाता है। करीम खान की पहली पत्नी, गफूरन एक अन्य किरण मास्टर उस्ताद अब्दुल वाहिद खान की बहन थी, जो उसका चचेरा भाई भी था। वे 1899 से 1902 तक रहे और मिरज चले गए। चलो यहां रुकते है, उस्ताद अब्दुल करीम खान के शब्दों को झाड़ियों में लगे तो श्रोताओं की आवाज में सुनते हैं अकेलेपन की देरी की एक बात है-‘अब मैं देख रहा हूं…… और तेज हो थ्रोटल का भाषण है: ‘फगुआ ब्रज को देखो.
उस्ताद अब्दुल करीम खान को मैसूर अदालत में बुलाया गया जहां उन्होंने प्रसिद्ध कर्नाटक के स्वामी से मुलाकात की से मिले जिन्होंने उनके संगीत को और भी प्रभावित किया।
विशेष रूप से उनके सरगम का गायन कर्नाटक अभ्यास का प्रत्यक्ष प्रभाव था।
वह मैसूर दरबार का लगातार आगंतुक बन गया।
खाँ साहब के स्वरों में जैसी मिठास, जैसा विस्तार और जैसी शुद्धता थी वैसी और किसी गायक को नसीब नहीं हुई।
वे अस्थिगत खयाल में लयकारी और बोल तान की अपेक्षा आलाप पर अधिक ध्यान रखते थे।
1925 से 1936 तक
उनके गायन में वीणा की मींड़, सारंगी के कण और गमक का मधुर स्पर्श होता था।
रचना के स्थायी और एक अन्तरे में ही ख्याल गायन के सभी गुणो का प्रदर्शन कर देते थे।
अपने गायन की प्रस्तुति के समय करीम खाँ अपने तानपूरे में पंचम के स्थान पर निषाद स्वर में मिला कर गायन करते थे।
वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
उत्कृष्ट ख्याल गायकी के साथ ठुमरी, दादरा, भजन और मराठी नाट्य संगीत-गायन में भी निपुण थे।
वर्ष 1925-26 में उनकी गायी राग झिंझोटी की ठुमरी- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन….’ काफी लोकप्रिय हुई। लगभग दस वर्षों के बाद 1936 में प्रथमेश चन्द्र बरुआ के निर्देशन में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास– “देवदास” पर इसी नाम से फिल्म का बनाई गयी। फिल्म के संगीत निर्देशक तिमिर वरन ने उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की गायी इसी ठुमरी को फिल्म में शामिल किया था, जिसे कुन्दनलाल सहगल ने स्वर दिया था।
सहगल के स्वरों में इस ठुमरी को सुन कर खाँ साहब बड़े प्रसन्न हुए थे और उन्हें बधाई भी दी थी।
उस्ताद अब्दुल करीम खाँ जैसे संगीतज्ञ कई-कई सदियों में जन्म लेते हैं।
अनेक प्राचीन संगीतज्ञों के बारे कहा जाता है कि उनके संगीत से पशु-पक्षी खिंचे चले आते थे।
करीम खान साहब के साथ भी ऐसी ही एक सत्य घटना जुड़ी हुई है।
उनका एक कुत्ता था, जो अपने स्वामी, खाँ साहब के स्वरों से इतना सुपरिचित हो गया था कि उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आवाज़ सुन कर उनकी और खिंचा चला आता था। इस तथ्य से प्रभावित होकर लन्दन की ग्रामोफोन कम्पनी ने अपना नामकरण और प्रतीक चिह्न, अपने स्वामी के स्वरों के प्रेमी उस कुत्ते को ही बनाया।
हिज मास्टर्स वायस (HMV) के ग्रामोफोन रिकार्ड पर चित्रित कुत्ता उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का ही है।
सम्मान
अब्दुल करीम खान को संगीत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया।
हर वर्ष अगस्त में उनकी याद में मिराज में स्मारक संगीत समारोह आयोजित किए जाते हैं।
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संगीत विद्यालय की स्थापना
वह अपने भाई के साथ धारवाड़ में रहते थे।
जहां उन्होंने अपने सबसे प्रसिद्ध शिष्य सवाई गंधर्व को पढ़ाया और 1900 में 8 महीने के लिए उन्होंने केसरबाई केरकर को पढ़ाया।
जो 20वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध गायक बने।
1913 में उन्होंने छात्रों को पढ़ाई के लिए पुणे में आर्य संगीत विद्यालय की स्थापना की।
उन्होंने कहा कि वह पूरे दिल से अपने सभी छात्रों को पढ़ाने के लिए, युग के अन्य परिवार उस्ताद वितरित करना होगा।
मृत्यु – अब्दुल करीम खान की जीवनी
अब्दुल करीम खान की मृत्यु 27 अक्टूबर 1937 में मिराज में जब वे दक्षिण के एक संगीत कार्यक्रम के दौरे से लौट रहे थे।
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