दादू दयाल हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इन्होंने एक निर्गुणवादी संप्रदाय की स्थापना की, जो ‘दादूपंथ’ के नाम से जानी जाती है। वे अहमदाबाद के एक धुनिया के पुत्र और मुग़ल सम्राट् शाहजहाँ के समकालीन थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन राजपूताना में व्यतीत किया तथा हिन्दू और इस्लाम धर्म में समन्वय स्थापित करने के लिए अनेक पदों की रचना की। उनके अनुयायी न तो मूर्तियों की पूजा करते हैं और न कोई विशेष प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं। वे सिर्फ़ राम का नाम जपते हैं और शांतिमय जीवन में विश्वास करते हैं। तो आइए आज इस आर्टिकल में हम आपको दादू दयाल की जीवनी – Dadu Dayal Biography Hindi के बारे में बताएगे ।
दादू दयाल की जीवनी – Dadu Dayal Biography Hindi
जन्म
संत कवि दादू दयाल का जन्म फागुन सुदी आठ बृहस्पतिवार संवत् 1601 (1544 ई.) को हुआ था। दादू दयाल का जन्म भारत के राज्य गुजरात के अहमदाबाद शहर में हुआ था, पर दादू के जन्म स्थान के बारे में विद्वान् एकमत नहीं है। दादू पंथी लोगों का विचार है कि वह एक छोटे से बालक के रूप में (अहमदाबाद के निकट) साबरमती नदी में बहते हुए पाये गये। दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद में हुआ था या नहीं है । लेकिन फिर भी इतना तो निश्चित है कि उनके जीवन का बड़ा भाग राजस्थान में बीता।
उनके परिवार का सम्बन्ध राजदरबार से नहीं था। तत्कालीन इतिहास लेखकों और संग्रहकर्त्ताओं की दृष्टि में इतिहास के केंद्र राजघराने ही हुआ करते थे। दादू दयाल के माता-पिता कौन थे और उनकी जाति क्या थी। इस विषय पर भी विद्वानों में मतभेद है। प्रामाणिक जानकारी के अभाव में ये मतभेद अनुमान के आधार पर बने हुए हैं। एक किंवदंती के अनुसार, कबीर की भाँति दादू भी किसी कवाँरी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे, जिसने बदनामी के भय से दादू को साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया। बाद में, इनका लालन-पालन एक धुनिया परिवार में हुआ। इनका लालन-पालन लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण ने किया। और इनकी माता का नाम बसी बाई था और वह ब्राह्मणी थी। यह किंवदंती कितनी प्रामाणिक है और किस समय से प्रचलित हुई है, इसकी कोई जानकारी नहीं है। सम्भव है, इसे बाद में गढ़ लिया गया हो। दादू के शिष्य रज्जब ने लिखा है—
धुनी ग्रभे उत्पन्नो दादू योगन्द्रो महामुनिः।
उतृम जोग धारनं, तस्मात् क्यं न्यानि कारणम्।।
पिंजारा रुई धुनने वाली जाति-विशेष है, इसलिए इसे धुनिया भी कहा जाता है। आचार्य क्षितिजमोहन सेन ने इनका सम्बन्ध बंगाल से बताया है। उनके अनुसार, दादू मुसलमान थे और उनका असली नाम ‘दाऊद’ था। दादू दयाल के जीवन की जानकारी दादू पंथी राघोदास ‘भक्तमाल’ और दादू के शिष्य जनगोपाल द्वारा रचित ‘श्री दादू जन्म लीला परची’ में मिलता है। इसके अलावा दादू की रचनाओं के अन्तःसाक्ष्य के माध्यम से भी, हम उनके जीवन और व्यक्तित्व के बारे में अनुमान लगा सकते हैं।
हिन्दू समाज में परम्परागत रूप से व्यक्ति का परिचय उसके कुल और उसकी जाति से दिया जाता रहा है। जात-पात की व्यवस्था मध्य काल में बहुत सुदृढ़ थी। अधिकांश निर्गुण संत कवि नीची समझी जाने वाली जातियों में हुए थे और वे जात-पात की व्यवस्था के विरोधी थे। लेकिन उनके अपमान का अभिजात समाज जात-पात का कट्टर समर्थक था। इस क्रूर यथार्थ को संत कवि जानते थे। फिर भी, उनके मन में अपनी जाति सम्बन्धी कोई हीन भावना नहीं थी। अतः उन्होंने न तो अपनी जाति को छिपाया और न इसे चरम सत्य मानकर ही पूजते रहे। कई बार स्वयं इनके जिज्ञासु भक्त भी यह पूछ ही लेते थे कि महाराज, आपकी जाति क्या है।
ऐसे जिज्ञासु भक्तों को सम्बोधित करते हुए दादू ने लिखा-
दादू कुल हमारे केसवा, सगात सिरजनहार।
जाति हमारी जगतगुर, परमेश्वर परिवार।।
दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिंरजे सोइ।।
मनसा बाचा क्रमनां, और न दूजा कोई।।
यहाँ दादू ने अपनी विचार प्रणाली को व्यक्त करते हुए कहा है कि मेरे सच्चे सम्बन्ध तो ईश्वर से हैं। और इसी सम्बन्ध से मेरा परिचय है। परिवार में अपने-पराये की भावना आ जाती है। दादू इसे संसार की ‘माया’ और संसार के ‘मोह’ की संज्ञा देते हैं। दादू अपने आपको इनसे मुक्त कर चुके थे, वह संसार में रहते हुए भी सांसारिक बंधनों को काट चुके थे। अतः निरर्थक जात-पात की लौकिक भाषा में अपना वास्तविक परिचय कैसे देते।
फिर भी, कई स्थानों पर उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया है कि वे एक पिंजारा हैं। एक पद में उन्होंने लिखा है—
कौण आदमी कमीण विचारा, किसकौं पूजै ग़रीब पिंजारा।।टेक
मैं जन येक अनेक पसारा, भौजिल भरिया अधिक अपारा।।
एक होइ तौ कहि समिझाऊँ, अनेक अरुझै क्यौं सुरझाउं।।
मैं हौं निबल सबल ए सारे, क्यौं करि पूजौं बहुत पसारे।।
पीव पुकारौ समझत नाही, दादू देषि दिसि जाही।।
दादू ने एक और पद में कहा है—
तहाँ मुझ कमीन की कौन चलावै।
जाका अजहूँ मुनि जन महल न पावै।।टेक
स्यौ विरंचि नारद मुनि गाबे, कौन भाँति करि निकटि बुलावै।।
देवा सकल तेतीसौ कोडि, रहे दरबार ठाड़े कर जोड़ि।।
सिध साधक रहे ल्यौ लाई, अजहूँ मोटे महल न पाइ।।
सवतैं नीच मैं नांव न जांनां, कहै दादू क्यों मिले सयाना।।
इस पद में सामाजिक संवेदना और आध्यात्मिक अनुभव का मिश्रण हुआ है। दादू ईश्वर से मिलना चाहता है, लेकिन यह समाज बाधक बना हुआ है। ईश्वर की दृष्टि में सभी मनुष्य बराबर हों भी तो क्या होता है। समाज तो मुझे सबसे नीच और कमीन कहकर ही पुकारता है। यहाँ ईश्वर से न मिल पाने की निराशा के साथ-साथ सामाजिक अन्याय से आहत हृदय का दर्द भी अभिव्यक्त हो गया है। इस अन्तः साक्ष्य के आधार पर निस्संकोच रूप से यह कहा जा सकता है कि दादू पिंजारा थे। ब्राह्मण सिद्ध करने वाली किंवदंतियों का जन्म बाद में हुआ। वह मुसलमान थे या नहीं, या उन्होंने इस्लाम में नयी-नयी दीक्षा ले ली थी, जिसके कारण उनमें कुछ हिन्दू संस्कार बच गए थे, पर वह थे मुसलमान ही। इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। सम्भव है, यह उन पर आरोप लगाने के लिए कहा जाता रहा हो। निर्गुण संतों की वर्णाश्रम विरोधी चेतना के प्रभाव को खत्म करने के लिए उन पर इस्लाम के प्रभाव को प्रचारित किया जाता रहा है। इस्लाम चूँकि उस युग का राज-धर्म था, अतः इनको भी तत्कालीन सत्ताधारियों से जोड़कर इनके जन-आधार को संकुचित करने का प्रयास किया गया था। ऐसा अनुमान इसलिए लगाया जा सकता है क्योंकि यही आरोप कबीर पर भी लगाया गया था।
उन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू और तुर्क दोनों के मार्गों को ग़लत बताया है। उनके शिष्य हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। फिर भी, उनके इस्लाम में दीक्षित हो जाने का कोई तर्क-सम्मत कारण नहीं दिखायी देता।
दादू की पत्नी कौन थी, और उसका क्या नाम था, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। इनके ग़रीबदास और मिस्कीनदास नामक दो पुत्र और नानीबाई तथा माताबाई नाम की दो पुत्रियाँ थीं। कुछ विद्वान् इस बात से असहमत हैं। उनके अनुसार ये उनके वरद पुत्र थे। कुछ लोगों के अनुसार ये उनके शिष्य थे। जनगोपाल के अनुसार दादू तीस वर्ष की अवस्था में सांभर में बस गये और दो वर्ष के बाद, उनके ज्येष्ठ पुत्र ग़रीबदास का जन्म हुआ।
दादू के गुरु
दादू ने अपनी वाणी में गुरु की महिमा का गान तो बहुत किया है, लेकिन उनका कहीं नाम नहीं लिया है, जिनके ज्ञान के प्रभाव से दादू का व्यक्तित्व लौकिक बाधा-बंधनों को काट सका। दादू ने अपनी रचनाओं में गुरु की महिमा का विस्तार से बखान किया है। अतः यह जानना भी हमारे लिए आवश्यक है कि इनके गुरु कौन थे। लेकिन इस तथ्य की प्रमाणिक जानकारी अनुपलब्ध है। जन गोपाल की ‘श्री दादू जन्म लीला परची’ के अनुसार ग्यारह वर्ष की अवस्था में भगवान ने एक बुद्ध के रूप में दर्शन देकर इनसे एक पैसा माँगा। फिर इनसे प्रसन्न होकर इनके सिर पर हाथ रखा और इनके सारे शरीर का स्पर्श करते हुए इनके मुख में ‘सरस पान’ भी दिया। दादू पंथियों के अनुसार बुड्ढन नामक एक अज्ञात संत इनके गुरु थे। जन गोपाल के अनुसार बचपन के ग्यारह वर्ष बीत जाने के बाद, इन्हें बुड्ढे के रूप में गुरु के दर्शन हुए।
वे साक्षर थे या नहीं, इसके बारे में अब भी संदेह बना हुआ है। इनके गुरु, जो अब तक अज्ञात हैं, यदि वे थोड़े बहुत साक्षर रहे भी हों तो भी इतना निश्चित है कि इन्होंने धर्म और दर्शन का अध्ययन नहीं किया था। उनकी रचनाओं का वस्तुगत विश्लेषण इसकी पुष्टि नहीं करता कि उन्होंने धर्म का शास्त्रीय अध्ययन किया था। अन्य निर्गुण संतों की तरह इन्हें भी सत्संग से धर्म-आध्यात्म का ज्ञान मिला था। उन्होंने लिखा है—
हरि केवल एक अधारा, सो तारण तिरण हमारा।।टेक
ना मैं पंडित पढ़ि गुनि जानौ, ना कुछ ग्यान विचारा।।
ना मैं आगम जोंतिग जांनौ, ना मुझ रूप सिंगारा।।
यहाँ पढ़-लिखकर पंडित होने का तात्पर्य शास्त्रीय विद्या से लिया जा सकता है। मध्य युग में यह सुविधा सिर्फ़ सवर्णों को मिली हुई थी। यहाँ एक तरफ़ तो उन तथाकथित सवर्णों की स्थिति पर व्यंग्य किया गया है। दूसरी तरफ़ शास्त्रीय ज्ञान के अभाव की कसक को भी संप्रेषित किया गया है। धर्म-शास्त्रों के शास्त्रज्ञों ने निश्चय ही उनके ज्ञान को चुनौती दी थी और दादू जैसे शांत स्वभाव के संत ने इस कमी को स्वीकार कर लिया—
आगम मो पै जाण्यौ न जाइ, इहै विमासनि जियड़े माहि।।
यह भी एक सर्वस्वीकृत तथ्य है कि अपनी रचनाओं का संग्रह स्वयं दादू दयाल ने नहीं बल्कि उनके शिष्यों ने किया था। इससे भी यह संदेह पुष्ट होता है कि शायद दादू साक्षर नहीं थे। भक्तिकाल के इन निर्गुण संतों की बड़ी विशेषता यह भी थी कि इनमें से अधिक़तर संत गृहस्थ थे। वे सांसारिक मोह-माया को त्यागने का उपदेश देते थे। लेकिन संसार के त्याग का नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि संसार में रहते हुए भी संसार से ऊपर उठा जाए। संसार का बहिष्कार करने वाले तो क़ायर होते हैं। उन्हें मुक्ति कैसे मिल सकती है। सांभर से ही दादू दयाल की भक्ति-साधना की शुरुआत होती है। यहीं से उन्होंने उपदेश देने शुरू किए थे और यहीं पर उन्होंने ‘पर ब्रह्म सम्प्रदाय’ की स्थापना की थी। जो दादू की मृत्यु के बाद ‘दादू पंथ’ कहा जाने लगा। दादू ने अपनी रचनाओं में अपने परिवार और पारिवारिक स्थिति का ज़िक्र किया है। उन्होंने लिखा है—
दादू रोजी राम है, राजिक रिजक हमार।
दादू उस परसाद सौं, पोष्या सब परिवार।।
दादू साहिब मेरे कपड़े, साहिब मेरा पाण।
साहिब सिर का नाज़ है, साहिब प्यंड परांण।।
सांई सत संतोष दे, भाव भगति बेसास।
सिदक सबूरी साच दे, माँगै दादू दास।।
दादू ने एक साखी में कहा है—
दादू हूंणा था सो होइ रह् या, और न होवै आइ।
लेणा था सो ले रह् या, और न लीया जाइ।।
अपने समय के समाज का सर्वेक्षण करते हुए दादू ने कहा है—
दादू सब जग नीधना, धनवंता नहीं कोई।
सो धनवंता जाणिय, जाकै राम पदारथ होई।।
इसी सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए संत कवि मूलकदास ने कहा था कि अजगर किसी कि चाकरी नहीं करता और पक्षी कोई भी काम नहीं करते। फिर भी उनको आहार तो मिलता ही है। सब जीवों के दाता राम हैं। इसलिए मनुष्य को खाने-पीने के लिए अपनी आत्मा को गिरवी नहीं रखना चाहिये।
निर्गुण संत
दादू दयाल ने अपने पूर्ववर्ती निर्गुण संतों का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया है। विशेष रूप से उन्होंने नामदेव, कबीर और रैदास के प्रति अगाध श्रद्धा प्रकट की है। कबीर तो दादू के आदर्श थे। उन्होंने एक पद में लिखा—
अंमृत रांम रसाइण पीया, ताथैं अमर कबीरा कीया।।
रांम रांम कहि रांम समांनां, जन रैदास मिले भगवाना।।
दादू के शिष्य
दादू के जीवन काल में ही उनके अनेक शिष्य बन चुके थे। उन्हें एक सूत्र में बाँधने के विचार से एक पृथक् सम्प्रदाय की स्थापना होनी चाहिये, यह विचार स्वयं दादू के मन में आ गया था। और इसलिए उन्होंने सांभर में ‘पर ब्रह्म सम्प्रदाय’ की स्थापना कर दी थी। दादू की मृत्यु के बाद उनके शिष्यों ने इस सम्प्रदाय को ‘दादू पंथ’ कहना शुरू कर दिया। शुरुआत में इनके कुल एक सौ बावन शिष्य माने जाते थे । इनमें से एक सौ शिष्य थे जो भगवत भजन में ही लगे रहे। बावन शिष्यों ने एकांत भगवत-चिन्तन के साथ लोक में ज्ञान के प्रचार-प्रसार का संगठनात्मक कार्य करना भी जरूरी समझा। इन बावन शिष्यों के थांभे प्रचलित हुए। इनके थांभे अब भी अधिकतर राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में हैं। इस क्षेत्र में अनेक स्थानो पर दादू-द्वारों की स्थापना की गई थी। उनके शिष्यों में ग़रीबदास, बधना, रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल आदि प्रसिद्ध हुए। इनमें से अधिकतर संतों ने अपनी मौलिक रचनाएँ भी प्रस्तुत की थीं।
प्रमुख उपसम्प्रदाय
कालान्तर में दादू पंथ के पाँच प्रमुख उपसम्प्रदाय निर्मित हुए:-
- खालसा
- विरक्त तपस्वी
- उतराधें या स्थानधारी
- खाकी
- नागा
इनके मानने वाले अलग-अलग स्थानों पर मिलते हैं। इनमें आपस में थोड़ी बहुत मत भिन्नता भी पायी जाती है। लेकिन सब उप-सम्प्रदायों में दादू के महत्त्व को स्वीकार किया जाता है।
उनके स्मारक के रूप में दो मेले भी लगा करते हैं। इनमें से एक नराणे में प्रति वर्ष फागुन सुदी पाँच से लेकर एकादशी तक लगता है। जिनमें प्रायः सभी स्थानों के दादू पंथी इकट्ठे होते हैं। दूसरा मेला भैराणे में फागुन कृष्ण तीन से फागुन सुदी तीन तक चलता रहता है।
रचनाएँ
- साखी
- पद्य
- हरडेवानी
- अंगवधू
दादू ने कई साखी और पद्य लिखे है। दादू की रचनाओं का संग्रह उनके दो शिष्यों संतदास और जगनदास ने ‘हरडेवानी’ नाम से किया था। कालांतर में रज्जब ने इसका सम्पादन ‘अंगवधू’ नाम से किया। दादू की कविता जन सामान्य को ध्यान में रखकर लिखी गई है, इसलिए यह सरल एवं सहज है। दादू भी कबीर की तरह अनुभव को ही प्रमाण मानते थे। दादू की रचनाओं में भगवान के प्रति प्रेम और व्याकुलता का भाव है। कबीर की तरह उन्होंने भी निर्गुण निराकार भगवान को वैयक्तिक भावनाओं का विषय बनाया है। उनकी रचनाओं में इस्लामी साधना के शब्दों का बहुत प्रयोग हुआ है। उनकी भाषा पश्चिमी राजस्थानी से प्रभावित हिन्दी है। इसमें अरबी-फ़ारसी के काफ़ी शब्द आए हैं, फिर भी वह सहज और सुगम है।
अंगवधू
दादू दयाल की वाणी अंगवधू सटीक आचार्य चन्द्रिका प्रसाद त्रिपाठी द्वारा सम्पादित है जो अजमेर से प्रकाशित हुई है। यह कई हस्तलिपियों के अनुकरण के आधार पर सम्पादित की गई है। इसी क्रम में रज्जब ने इनकी वाणी को क्रमबद्ध तथा अलग-अलग भागों में विभाजित करके अंगवधू के नाम से इनकी वाणियों का संकलन किया। अंगवधू में हरडे वाणी की सभी त्रुटियों को दूर करने का प्रयास परिलक्षित होता है। अंगवधू को 37 भागों में विभाजित करने का प्रयास है। इसी के आधार पर ही अलग-अलग विद्वानों ने दादू वाणी को अपने-अपने ढंग से सम्पादित किया है। 59 दादू वाणी को कई लोगों ने सम्पादित किया है। जिनमें चन्द्रिका प्रसाद, बाबू बालेश्वरी प्रसाद, स्वामी नारायण दास, स्वामी जीवानंद, भारत भिक्षु आदि प्रमुख हैं। 1907 में सुधाकर द्विवेदी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से इनकी रचनाओं को दादू दयाल की बानी के नाम से प्रकाशित करवाया। इन्होंने इसको दो भागों में विभाजित किया है। पहले खण्ड में दोहे तथा दूसरे में पद है, जिन्हें राग-रागिनियों के सन्दर्भों में वर्गीकृत किया है।
मृत्यु
दादू दयाल की मृत्यु जेठ वदी अष्टमी शनिवार संवत् 1660 (1603 ई.) को हुई। जन्म स्थान के सम्बन्ध में मतभेद की गुंजाइश हो सकती है। लेकिन यह तय है कि इनकी मृत्यु अजमेर के निकट नराणा गाँव में हुई। वहाँ ‘दादू-द्वारा’ बना हुआ है। इनके जन्म-दिन और मृत्यु के दिन वहाँ पर हर साल मेला लगता है। दादू की इच्छानुसार उनके शरीर को भैराना की पहाड़ी पर स्थित एक ग़ुफ़ा में रखा गया, जहाँ इन्हें समाधि दी गयी। इसी पहाड़ी को अब ‘दादू खोल’ कहा जाता है। जहाँ उनकी याद में अब भी मेला लगता है।