काका कालेलकर(English – Kaka Kalelkar) भारत के प्रसिद्ध गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, पत्रकार और लेखक थे। 1922 में गुजराती पत्र ‘नवजीवन’ के सम्पादक भी रहे थे। वे साबरमती आश्रम के सदस्य थे और अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। गांधी जी के निकटतम सहयोगी होने का कारण ही वे ‘काका’ के नाम से जाने गए। 1964 में उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया।
काका कालेलकर की जीवनी – Kaka Kalelkar Biography Hindi

संक्षिप्त विवरण
नाम | काका कालेलकर |
पूरा नाम अन्य नाम | दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर काका साहब, आचार्य कालेलकर |
जन्म | 1 दिसंबर 1885 |
जन्म स्थान | सतारा, महाराष्ट्र, भारत |
पिता का नाम | – |
माता का नाम | – |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
धर्म | – |
जाति | – |
जन्म
काका कालेलकर का जन्म 1 दिसंबर 1885 को सतारा,महाराष्ट्, भारत में हुआ था। उनका पूरा नाम ‘दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर’ था।
शिक्षा
Kaka Kalelkar ने ‘फ़र्ग्यूसन कॉलेज’, पुणे में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने एक शिक्षक के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया। 1990 में वे बेलगांव के गणेश विद्यालय के प्रधानाध्यापक के रूप में बड़ौदा चले गए, परन्तु किन्ही राजनीतिक कारणों से एक वर्ष बाद ही यह विद्यालय बन्द हो गया।
गाँधीजी से मुलाक़ात
1915 में शांति निकेतन में काका कालेलकर की मुलाक़ात गांधी जी से हुई और उन्होंने अपना जीवन गांधी जी के कार्यों को समर्पित कर दिया। उनके राजनीतिक विचार भी बदल गये। वे साबरमती आश्रम के विद्यालय के प्राचार्य बने और बाद में उनके अनुभवों के आधार पर ‘बेसिक शिक्षा’ की योजना बनी। फिर वे 1928 से 1935 तक ‘गुजरात विद्यापीठ’ के कुलपति रहे। 1935 में काका साहब गांधी जी के साथ साबरमती से वर्धा चले गए और हिन्दी के प्रचार में लग गए।
कार्यक्षेत्र
काका साहब कालेलकर जी का नाम हिंदी भाषा के विकास और प्रचार के साथ जुड़ा हुआ है। 1938 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अधिवेशन में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था,”राष्ट्रभाषा प्रचार हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है।” अपने इसी वक्तव्य पर दृढ़ रहते हुए उन्होंने हिंदी के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम का दर्जा दिया।
Kaka Kalelkar उच्चकोटि के विचारक और विद्वान थे। उनका योगदान हिंदी-भाषा के प्रचार तक ही सीमित नहीं था। उनकी अपनी मौलिक रचनाओं से हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ है। सरल और ओजस्वी भाषा में विचारपूर्ण निबंध और विभिन्न विषयों की तर्कपूर्ण व्याख्या उनकी लेखन-शैली के विशेष गुण हैं। मूलरूप से विचारक और साहित्यकार होने के कारण उनकी अभिव्यक्ति की अपनी शैली थी, जिसे वह हिंदी-गुजराती, मराठी और बंगला में सामान्य रूप से प्रयोग करते थे।
उनकी हिंदी-शैली में एक विशेष प्रकार की चमक और व्यग्रता है जो पाठक को आकर्षित करती है। उनकी दृष्टि बड़ी सूक्ष्म थी, इसलिए उनकी लेखनी से प्रायः ऐसे चित्र बन पड़ते हैं जो मौलिक होने के साथ-साथ नित्य नये दृष्टिकोण प्रदान करते रहें। उनकी भाषा और शैली बड़ी सजीव और प्रभावशाली थी। कुछ लोग उनके गद्य को पद्यमय ठीक ही कहते हैं। उसमें सरलता होने के कारण स्वाभाविक प्रवाह है और विचारों का बाहुल्य होने के कारण भावों के लिए उड़ान की क्षमता है। उनकी शैली प्रबुद्ध विचार की सहज उपदेशात्मक शैली है, जिसमें विद्वत्ता, व्यंग्य, हास्य, नीति सभी तत्व विद्यमान हैं।
काका साहब मँजे हुए लेखक थे। किसी भी सुंदर दृश्य का वर्णन अथवा पेचीदा समस्या का सुगम विश्लेषण उनके लिए आनंद का विषय रहे। उन्होंने देश, विदेशों का भ्रमण कर वहाँ के भूगोल का ही ज्ञान नहीं कराया, अपितु उन प्रदेशों और देशों की समस्याओं, उनके समाज और उनके रहन-सहन उनकी विशेषताओं इत्यादि का स्थान-स्थान पर अपनी पुस्तकों में बड़ा सजीव वर्णन किया है। वे जीवन-दर्शन के जैसे उत्सुक विद्यार्थी थे, देश-दर्शन के भी वैसे ही शौकिन रहे।
काका कालेलकर की लगभग 30 पुस्तकें प्रकाशित हुई जिनमें अधिकांश का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ ये हैं-
‘स्मरण-यात्रा’, ‘धर्मोदय’ (दोनों आत्मचरित), ‘हिमालयनो प्रवास’, ‘लोकमाता’ (दोनों यात्रा विवरण), ‘जीवननो आनंद’, ‘अवरनावर’ (दोनों निबंध संग्रह)
काका कालेलकर सच्चे बुद्धिजीवी व्यक्ति थे। लिखना सदा से उनका व्यसन रहा। सार्वजनिक कार्य की अनिश्चितता और व्यस्तताओं के बावजूद यदि उन्होंने बीस से ऊपर ग्रंथों की रचना कर डाली इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इनमें से कम-से-कम 5-6 उन्होंने मूल रूप से हिंदी में लिखी। यहाँ इस बात का उल्लेख भी अनुपयुक्त न होगा कि दो-चार को छोड़ बाकी ग्रंथों का अनुवाद स्वयं काका साहब ने किया, अतः मौलिक हो या अनूदित वह काका साहब की ही भाषा शैली का परिचायक हैं। हिंदी में यात्रा-साहित्य का अभी तक अभाव रहा है। इस कमी को काका साहब ने बहुत हदतक पूरा किया। उनकी अधिकांश पुस्तकें और लेख यात्रा के वर्णन अथवा लोक-जीवन के अनुभवों के आधार पर लिख गए। हिंदी, हिंदुस्तानी के संबंध में भी उन्होंने कई लेख लिखे।
रचनाएँ
हिन्दी ग्रंथ | मराठी पुस्तकें | गुजराती पुस्तकें |
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पुरस्कार
- 1964 में उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया।
- 1979 में 76वीं वर्षगांठ के अवसर पर अहमदाबाद में उन्हें गुजराती में कालेलकर-अध्ययन-ग्रंथ समर्पित कर सम्मानित किया गया।
- सरदार पटेल विश्वविद्यालय, आणंद, गुजरात विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ ने उन्हें मानद् डी. लिट्. से और साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने ‘फ़ैलो’ से अलंकृत किया।
मृत्यु
काका कालेलकर की मृत्यु 21 अगस्त, 1981 को नई दिल्ली में उनके ‘संनिधि’ आश्रम में हुई।