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कवि प्रदीप की जीवनी – Kavi Pradeep Biography Hindi

आज इस आर्टिकल में हम आपको कवि प्रदीप की जीवनी – Kavi Pradeep Biography Hindi के बारे में बताएगे।

कवि प्रदीप की जीवनी – Kavi Pradeep Biography Hindi

कवि प्रदीप की जीवनी

(English – Kavi Pradeep)कवि प्रदीप प्रसिद्ध कवि और गीतकार थे।

उन्होने देशभक्ति गीत ऐ मेरे वतन के लोगों की रचना के लिए प्रसिद्ध हैं।

कवि प्रदीप की पहचान 1940 में रिलीज हुई फिल्म बंधन से बनी।

फ़िल्मी जगत् में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1998 में भारत के राष्ट्रपति के.आर. नारायणन द्वारा प्रतिष्ठित ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ दिया गया।

जन्म

कवि प्रदीप का जन्म 6 फरवरी 1915 को उज्जैन, मध्य प्रदेश में हुआ था।

उनका मूल नाम ‘रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी’ था। उनके पिता का नाम नारायण भट्ट था।

1942 में उनका विवाह  सुभद्रा बेन जोकि मुम्बई निवासी गुजराती ब्राह्मण चुन्नीलाल भट्ट की पुत्री थी।

उनकी दो बेटियां है जिनके नाम सरगम और मितुल है।

शिक्षा – कवि प्रदीप की जीवनी

Kavi Pradeep की शुरुआती शिक्षा इंदौर के ‘शिवाजी राव हाईस्कूल’ में हुई, जहाँ वे सातवीं कक्षा तक पढ़े। इसके बाद की शिक्षा इलाहाबाद के दारागंज हाईस्कूल में संपन्न हुई। इसके बाद इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की।

दारागंज उन दिनों साहित्य का गढ़ हुआ करता था। वर्ष 1933 से 1935 तक का इलाहाबाद का काल प्रदीप जी के लिए साहित्यिक दृष्टीकोंण से बहुत अच्छा रहा। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की एवं अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्‌यक्रम में प्रवेश लिया। विद्यार्थी जीवन में ही हिन्दी काव्य लेखन एवं हिन्दी काव्य वाचन में उनकी गहरी रुचि थी।

कविता का शौक़

किशोरावस्था में ही कवि प्रदीप को लेखन और कविता का शौक़ लगा। कवि सम्मेलनों में वे ख़ूब दाद बटोरा करते थे। कविता तो आमतौर पर हर व्यक्ति जीवन में कभी न कभी करता ही है, परंतु रामचंद्र द्विवेदी की कविता केवल कुछ क्षणों का शौक़ या समय बिताने का साधन नहीं थी, वह उनकी सांस-सांस में बसी थी, उनका जीवन थी। इसीलिए अध्यापन छोड़कर वे कविता की सरंचना में व्यस्त हो गए।

फ़िल्मी पदार्पण

वर्ष 1939 में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद कवि प्रदीप ने शिक्षक बनने का प्रयास किया, लेकिन इसी दौरान उन्हें मुंबई में हो रहे एक कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने का न्योता मिला।

कवि सम्मेलन में उनके गीतों को सुनकर ‘बाम्बे टॉकीज स्टूडियो’ के मालिक हिंमाशु राय काफ़ी प्रभावित हुए और उन्होंने प्रदीप को अपने बैनर तले बन रही फ़िल्म ‘कंगन’ के गीत लिखने की पेशकश की। इस फ़िल्म में अशोक कुमार एवं देविका रानी ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थीं।

1939 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘कंगन’ में उनके गीतों की कामयाबी के बाद प्रदीप बतौर गीतकार फ़िल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फ़िल्म के लिए लिखे गए चार गीतों में से प्रदीप ने तीन गीतों को अपना स्वर भी दिया था। इस प्रकार ‘कंगन’ फ़िल्म के द्वारा भारतीय हिंदी फ़िल्म उद्योग को गीतकार, संगीतकार एवं गायक के रूप में एक नयी प्रतिभा मिली। 1943 में मुंबई की ‘बॉम्बे टॉकीज’ की पांच फ़िल्मों- ‘अंजान’, ‘किस्मत’, ‘झूला’, ‘नया संसार’ और ‘पुनर्मिलन’ के लिये भी कवि प्रदीप ने गीत लिखे।

Kavi Pradeep की पहचान 1940 में रिलीज हुई फिल्म बंधन से बनी। हालांकि 1943 की स्वर्ण जयंती हिट फिल्म किस्मत के गीत “दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है” ने उन्हें देशभक्ति गीत के रचनाकारों में अमर कर दिया। गीत के अर्थ से क्रोधित तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए।

पांच दशक के अपने पेशे में कवि प्रदीप ने 71 फिल्मों के लिए 1700 गीत लिखे.[4] उनके देशभक्ति गीतों में, फिल्म बंधन (1940) में “चल चल रे नौजवान”, फिल्म जागृति (1954) में “आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं”, “दे दी हमें आजादी बिना खडग ढाल” और फिल्म जय संतोषी मां (1975) में “यहां वहां जहां तहां मत पूछो कहां-कहां” है। इस गीत को उन्होंने फिल्म के लिए स्वयं गाया भी था।

प्रसिद्ध गीत – कवि प्रदीप की जीवनी

 

स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान

Kavi Pradeep गाँधी विचारधारा के कवि थे। प्रदीप जी ने जीवन मूल्यों की कीमत पर धन-दौलत को कभी महत्व नहीं दिया। कठोर संघर्षों के बावजूद उनके निवास स्थान ‘पंचामृत’ पर स्वर्ण के कंगुरे भले ही न मिलें, परन्तु वैश्विक ख्याति का कलश ज़रूर दिखेगा। प्रदीप जी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे।

एक बार स्वतंत्रता के आन्दोलन में उनका पैर फ्रैक्चर हो गया था और कई दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। वे अंग्रेज़ों के अनाचार-अत्याचार आदि से बहुत दु:खी होते थे। उनका मानना था कि यदि आपस में हम लोगों में ईर्ष्या-द्वेष न होता तो हम ग़ुलाम न होते। परम देशभक्त चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत पर कवि प्रदीप का मन करुणा से भर गया था और उन्होंने अपने अंर्तमन से एक गीत रच डाला था, जिसके बोल निम्न प्रकार थे –

वह इस घर का एक दिया था,
विधी ने अनल स्फुलिंगों से उसके जीवन का वसन सिया था
जिसने अनल लेखनी से अपनी गीता का लिखा प्रक्कथन
जिसने जीवन भर ज्वालाओं के पथ पर ही किया पर्यटन
जिसे साध थी दलितों की झोपड़ियों को आबाद करुं मैं
आज वही परिचय-विहीन सा पूर्ण कर गया अन्नत के शरण।

पुरस्कार

कवि प्रदीप को अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे, जिनमें ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ (1961) तथा ‘फ़िल्म जर्नलिस्ट अवार्ड’ (1963) शामिल हैं। यद्यपि साहित्यिक जगत् में प्रदीप की रचनाओं का मूल्यांकन पिछड़ गया तथापि फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए भारत सरकार, राज्य सरकारें, फ़िल्मोद्योग तथा अन्य संस्थाएँ उन्हें सम्मानों और पुरस्कारों से अंलकृत करते रहे।

उन्हें सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मी गीतकार का पुरस्कार राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा दिया गया। 1995 में राष्ट्रपति द्वारा ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि दी गई और सबसे अंत में, जब कवि प्रदीक का अंत निकट था, फ़िल्म जगत् में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1998 में भारत के राष्ट्रपति के.आर. नारायणन द्वारा प्रतिष्ठित ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ दिया गया।

सुश्री मितुल जब अपने बीमार पिता प्रदीप को पहिया कुर्सी पर बिठाकर मंच की ओर बढ़ रही थीं तो हॉल में ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों’ गीत बज रहा था। सभी उपस्थित जन अपनी जगहों पर खड़े हो गए थे। उनकी आँखों में आँसू थे। राष्ट्रपति ने पहले प्रदीप के स्वास्थ्य के बारे में पूछा और फिर पुरस्कार प्रदान किया।

जब वे लौटने लगे तो दूसरा गीत बज उठा ‘हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के’ लोग अब भी खड़े थे और तालियाँ बजाये जा रहे थे। कवि प्रदीप का हर फ़िल्मी-ग़ैर फ़िल्मी गीत अर्थपूर्ण होता था और जीवन को कोई न कोई दर्शन समझा जाता था। खेद का विषय यह है कि ऐसे महान् देश भक्त, गीतकार एवं संगीतकार को भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित नहीं किया, न ही आज तक उन पर स्मारक डाक टिकट निकला।

निधन – कवि प्रदीप की जीवनी

कवि प्रदीप का निधन 83 वर्ष की आयु में 11 दिसंबर, 1998 को कैंसर के कारण हुआ।

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