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लालचंद प्रार्थी की जीवनी – lalchand praarthee Biography in hindi

आज इस आर्टिकल में हम आपको लालचंद प्रार्थी की जीवनी – lalchand praarthee Biography in hindi के बारे में बताएगे।

लालचंद प्रार्थी की जीवनी – lalchand praarthee Biography in hindi

लालचंद प्रार्थी की जीवनी
लालचंद प्रार्थी की जीवनी

एक कुशल राजनेता व लेखक थे।

उन्होंने सामाजिक सेवा शुरू की और सक्रिय रूप से भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया।

बाद में वह 1952, 1962 और 1967 में राज्य विधानसभा के लिए चुने गए।

 

जन्म – लालचंद प्रार्थी की जीवनी

लालचंद प्रार्थी का जन्म 3 अप्रैल 1916 को कुल्लू, हिमाचल प्रदेश में हुआ था।

लाल चंद प्रार्थी ‘चाँद’ कुल्लुवी के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वे हिमाचल के आसमाने-सियासत और अदबी उफ़ुक़ के दरख़्शाँ चाँद थे।

वे उच्च कोटि के साहित्यकार, राजनेता, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी और उर्दू के प्रकांड विद्वान थे।

उनका व्यक्तित्व आकर्षक था और अपने धाराप्रवाह भाषण से श्रोताओं को घंटों तक बाँधे रखते थे।

उनका कलाम बीसवीं सदी, शम्मा और शायर जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था।

कुल-हिन्द तथा हिन्द -पाक मुशायरों में भी उनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था।

उनकी संगीत में भी काफी रुचि थी। उन्होने हिमाचल सरकार के कई मंत्री पदों को भी सुशोभित किया था।

शिक्षा

वे  विधायक और मन्त्री  भी रहे। मैट्रिक की शिक्षा अपने ही क्षेत्र से पाकर वे लाहौर में चले गये और वहाँ से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की।

लाहौर में रहते हुए उन्होने ‘डोगरा सन्देश’ और ‘कांगड़ा समाचार’ के लिए नियमित रूप से लिखना शुरू किया।

इसके साथ ही उन्होंने अपने विद्यालय के छात्रों का नेतृत्व किया और स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गये।

करियर

1940 के दशक में उनका गीत ‘हे भगवान, दो वरदान, काम देश के आऊँ मैं’ बहुत लोकप्रिय था। इसे गाते हुए बच्चे और बड़े गली-कूचों में घूमते थे। उस समय उन्होंने ग्राम्य सुधार पर एक पुस्तक भी लिखी।

यह गीत उस पुस्तक में ही छपा था। लेखन के साथ ही उनकी प्रतिभा नृत्य और संगीत में भी थी। वे पाँव में घुँघरू बाँधकर हारमोनियम बजाते हुए महफिलों में समाँ बाँध देते थे। उन्हें शास्त्रीय गीत, संगीत और नृत्य की बारीकियों का अच्छा ज्ञान था।

लाहौर में निर्मित फिल्म ‘कारवाँ’ में उन्होंने अभिनय भी किया था। इसके अलावा भी उनमें कई और अनेक गुण भी विद्यमान थे, जिनका वर्णन देवप्रस्थ साहित्य संगम, कुल्लू द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘प्रार्थी के बिखरे फूल’ में विस्तार से किया गया है।

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लालचन्द प्रार्थी ने हिमाचल प्रदेश की संस्कृति के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। एक समय ऐसा भी था, जब हिमाचल के लोगों में अपनी भाषा, बोली और संस्कृति के प्रति हीनता की भावना पैदा हो गयी थी।

वे विदेशी और विधर्मी संस्कृति को श्रेष्ठ मानने लगे थे। ऐसे समय में प्रार्थी जी ने सांस्कृतिक रूप से प्रदेश का नेतृत्व किया। इससे युवाओं का पलायन रुका और लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व की भावना जागृत हुई।

हिमाचल प्रदेश में भाषा-संस्कृति विभाग और अकादमी की स्थापना, कुल्लू के प्रसिद्ध दशहरा मेले को अन्तरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित करना तथा कुल्लू में मुक्ताकाश कला केन्द्र की स्थापना उनके ही प्रयास से हुई।

प्रार्थी जी ने अनेक भाषाओं में साहित्य रचा; पर उनकी पहचान मुख्यतः उर्दू शायरी से बनी। उनके काव्य को ‘वजूद ओ अदम’ नाम से उनके देहान्त के बाद 1983 में भाषा, कला और संस्कृति अकादमी ने प्रकाशित किया।

रचनाएँ

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उनकी एक कविता कुछ इस प्रकार है-

खुश्क धरती की दरारों ने किया याद अगर
उनकी आशाओं का बादल हूँ, बरस जाऊँगा।
कौन समझेगा कि फिर शोर में तनहाई के
अपनी आवाज भी सुनने को तरस जाऊँगा।।

मृत्यु – लालचंद प्रार्थी की जीवनी

लालचंद प्रार्थी की 11 दिसम्बर 1982 को मृत्यु हो गई।

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