मीराबाई की जीवनी
जन्म
मीराबाई का जन्म संवत् 1504 विक्रमी में मेड़ता में हुआ था। उनके पिता का नाम रतन सिंह और उनकी माता का नाम वीर कुमारी था। वे बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं। मीरा का जन्म एक राठौर राजपूत परिवार में हुआ था और उनका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ।उनके पति का नाम महाराणा कुंवर भोजराज था। जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति की मृत्यु हो गई । पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, लेकिन मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय बिताने लगीं। पति के परलोकवास के बाद उनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गई। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से तंग होकर वे द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ भी जाती थीं, वहाँ उन्हे लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हे देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।
मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल -पुथल का समय रहा है। बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध खानवा की लड़ाई जो की बाबर और राणा संग्राम सिंह के बीच हुई, जिसमें राणा सांगा की पराजय हुई और भारत में मुग़लों का अधिपत्य शुरू हुआ। हिंदुत्व के पतन और अवसान के दिन शुरू हुए। देश में राजनैतिक अस्थिरता पैदा हुई जिसमें धर्म और संस्कृति की रक्षा करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। इस सभी परिस्तिथियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धत्ति सवर्मान्य बनी।
शिक्षक
मीराबाई श्री गुरु रविदास की शिष्या थीं और 200 से 1300 की अवधि के बीच कई भक्ति गीतों, जिन्हें भजन कहा जाता था, की रचनाएँ की थी।
मीराबाई की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी है। उनके पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं। हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। आँसुओं से भरे ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में श्रृंगार रस और शांत रस का प्रयोग विशेष रूप से किया है। भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहज शैली की सरसता के कारण मीराबाई की व्यथासिक्त पदावली बरबस ही सबको आकर्षित कर लेती है। मीराबाई ने भक्ति को एक नया आयाम दिया है। एक ऐसा स्थान जहाँ भगवान ही इंसान का सब कुछ होता है। संसार के सभी लोभ उसे मोह से विचलित नहीं कर सकते। एक अच्छा-खासा राजपाट होने के बाद भी मीराबाई वैरागी बनी रहीं। उनकी कृष्ण भक्ति एक अनूठी मिसाल रही है।
रचनाएँ-
- गीत गोविन्द टीक
- सोरठा के पद
- राग गोविन्द
- नरसी जी रो मायरो।
ये रचनाएँ मीरा की पदावली के नाम से संग्रहित और प्रकाशित हुई।
भावपक्ष-
- मीरा भक्तिकालीन कवयित्री थी। सगुण भक्ति धारा में कृष्ण को आराध्य मानकर इन्होंने कविताएँ की ।
- गोपियों के समान मीरा भी श्री कृष्ण को अपना पति मानकर मधुर भाव से उनकी उपासना करती रही ।
- मीरा के पदों में एक तल्लीनता, सहजता और आत्मसमर्पण का भाव सर्वत्र मौजूद है।
- मीरा ने कई पदों में रैदास को गुरू के रूप में स्मरण किया है तो कहीं-कहीं तुलसीदास को अपने पुत्रवत स्नेह का पात्र बताया है।
कलापक्ष-
- मीरा की काव्य भाषा में विविधता दिखलार्इ देती है। वे कहीं शुद्ध ब्रजभाषा का प्रयोग करती हैं तो कहीं राजस्थानी बोलियों का सम्मिश्रण कर देती हैं।
- मीराबाई को गुजराती कवयित्री माना जाता है क्योंकि उनकी काव्य की भाषा में गुजराती पूर्वी हिन्दी तथा पंजाबी के शब्दों की बहुतायत है पर इनके पदों का प्रभाव पूरे भारतीय साहित्य में दिखलाई देता है।
- इनके पदों में अलंकारों की सहजता और गेयता अद्भुत हैं जो सर्वत्र माधुर्य गुण से ओत-प्रोत हैं।
- मीराबाई ने बड़े सहज और सरल शब्दों में अपनी प्रेम पीड़ा को कविताओं में व्यक्त किया है।
साहित्य मेंं स्थान-
कृष्ण को आराध्य मानकर कविता करने वाली मीराबाई की पद हिन्दी साहित्य के लिए अनमोल हैं। कृष्ण के प्रति मीरा की वियोग वेदना सूरदास की गोपियों से कम नहीं है तभी तो सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है कि-
केन्द्रीय भाव-
मीरा के पदों का वैशिष्ट्य उनकी तीव्र आत्मानुभूति में निहित है। मीरा के काव्य का विषय है- श्रीकृष्ण के प्रति उनका अनन्यप्रेम और भक्ति। मीरा ने प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों की सुंदर अभिव्यक्ति की है। श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम में मीरा किसी भी प्रकार की बाधा या यातना से हार नहीं मानती थी । समाज का भय और परिवार की प्रताड़ना दोनों का ही वे दृढ़ता के साथ सामना करती हैं।
मृत्यु
द्वारका में संवत 1627 मीराबाई, भगवान कृष्ण की मूर्ति में समा गईं।