श्रीपाद दामोदर सातवलेकर( English – Shripad Damodar Satwalekar) बीसवीं शताब्दी के भारतीय सांस्कृतिक उन्नयन में विशेष योगदान देने वाले विद्वान थे। वैदिक साहित्य के संबंध में उन्होंने अनेक लेख लिखे और हैदराबाद में ‘विवेकवर्धिनी’ नामक शिक्षा संस्था की स्थापना की। राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत उनकी ज्ञानोपासना वहाँ के निज़ाम को अच्छी नहीं लगी, इसीलिए इनको शीघ्र ही हैदराबाद छोड़ देना पड़ा। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए 1968 में ‘भारत सरकार ने ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया था।
श्रीपाद दामोदर सातवलेकर की जीवनी – Shripad Damodar Satwalekar Biography Hindi

संक्षिप्त विवरण
नाम | श्रीपाद दामोदर सातवलेकर |
पूरा नाम | श्रीपाद दामोदर सातवलेकर |
जन्म | 19 सितंबर, 1867 |
जन्म स्थान | महाराष्ट्र |
पिता का नाम | दामोदर भट्ट |
माता का नाम | – |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
मृत्यु | 31 जुलाई, 1969 |
मृत्यु स्थान | – |
जन्म
श्रीपाद दामोदर सातवलेकर का जन्म 19 सितंबर, 1867 में सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला के दक्षिणी छोर पर स्थित ‘सावंतवाड़ी’ रियासत में हुआ था। उनके पिता का नाम दामोदर भट्ट था। पिता दामोदर भट्ट, पितामह अनंत भट्ट और प्रपितामह कृष्ण भट्ट, ये सभी ऋग्वेदी वैदिक परंपरा के मूर्धन्य विद्वान रहे थे।
शिक्षा
बचपन से ही श्रीपाद दामोदर सातवलेकर को वेदों का अध्ययन कराया गया था। वैसे भी अपने आध्यात्मिक ज्ञान के कारण सातवलेकर परिवार की समाज में बहुत प्रतिष्ठा थी। आठ वर्ष की आयु में श्रीपाद की स्कूली शिक्षा शुरू हुई। आचार्य चिंतामणि शास्त्री केलकर ने उन्हें संस्कृत व्याकरण में पारंगत किया।
चित्रकला की ओर आकर्षण
एक अंग्रेज़ अधिकारी वेस्ट्राप ने 1887 में सावंतवाड़ी में चित्रकला शाला शुरू की। वहां गुरु मालवणकर की चित्रकारी ने श्रीपाद दामोदर का मन मोह लिया। उन्होंने इस कला को सीखने का प्रण किया। उनके पिता दामोदर भट्ट भी चित्रकला में प्रवीण थे। अत: घर की दीवारों पर श्रीपाद की चित्रकारी निखरने लगी। मूर्तिकला में भी उनका कोई सानी नहीं था। ‘जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्टस’ में शिक्षा प्राप्त कर हैदराबाद में चित्रशाला स्थापित की। अपने व्यवसाय के साथ-साथ उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में भी उत्साहपूर्वक भाग लेना आरंभ किया। वेदों के आधार पर लिखित उनका लेख ‘तेजस्विता’ राजद्रोहात्मक समझा गया, जिसके कारण उन्हें तीन वर्ष की जेल की सज़ा भी काटनी पड़ी।
योगदान
देश के प्राचीनतम धर्म-दर्शन ग्रंथ वेद, जिन्हें विश्व के सर्वप्रथम धर्म-ग्रंथ भी माना जाता है, का सरल हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करके Shripad Damodar Satwalekar ने इन महान् ग्रंथों का देश भर में जितना व्यापक प्रचार किया, उतना किसी भी अन्य व्यक्ति या आन्दोलन द्वारा भी नहीं हो सका। चारों वेदों का अनुवाद बहुत बड़ा और समय साध्य कार्य था और पण्डित सातवलेकर का वास्तविक व्यवसाय भी यह नहीं था। वे मुंबई के सुप्रसिद्ध ‘जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स’ से शिक्षित कुशल चित्रकार थे, परंतु एक बार निश्चय कर लेने के पश्चात् उन्होंने अकेले ही न केवल इस विशाल कार्य को सम्पन्न किया, बल्कि स्वयं अपना प्रेस स्थापित करके उसके प्रकाशन का भी प्रबन्ध किया और प्रकाशन के बाद सुदूर महाराष्ट्र में रहते हुए भी उत्तर भारत में उसके प्रसार-प्रचार का बीड़ा भी उठाया। यह नि:सन्देह बड़े गौरव की बात थी। उनके अपने समय में वेदों की जानकारी और ज्ञान रखने वाले सभी व्यक्तियों ने उन्हीं अनुवादों को पढ़कर इनमें प्रवेश किया था। यही नहीं, आज भी अनेक सामान्य जन जहाँ-तहाँ ऐसे मिल जाते हैं, जो बताते हैं कि वे उन्हीं के अनुवाद पढ़कर वेदों को जान-समझ रहे हैं।
संस्कृत का प्रचार
संस्कृत भाषा के प्रचार में भी पहला अखिल भारतीय प्रयास पंडित सातवलेकर ने ही किया था। उन्होंने इस कठिन भाषा को सरलता से सिखाने के लिए आज से 80 वर्ष पूर्व ‘संस्कृत स्वयंशिक्षक’ नाम से जो पुस्तक तैयार की थी, वह आज तक उतनी ही लोकप्रिय बनी हुई है, जितनी उस समय थी। उसके साथ ही उन्होंने अपनी संस्था के माध्यम से संस्कृत में परीक्षाओं का कार्यक्रम भी चलाया, जो बहुत सफल रहा। कन्हैयालाल मुंशी की सुप्रसिद्ध संस्था ‘भारतीय विद्या भवन’ ने इस कार्यक्रम के ही अनुकरण पर बाद में संस्कृत परीक्षाओं की योजना चलाई थी।
निधन
पण्डित सातवलेकर ने दीर्घायु प्राप्त की थी। वे 101 वर्ष से अधिक जीवित रहे। 90 वर्ष की अवस्था प्राप्त करने पर बम्बई (मुंबई) में उनका विशाल सभिनन्दन किया गया था। इसकी अध्यक्षता ‘भारतीय विद्या भवन’ के प्रतिष्ठाता गुजराती के महान् उपन्यासकर तथा पण्डित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में एक प्रमुख मंत्री, कन्हैयालाल मुंशी ने की थी। इसके बाद 100 वर्ष की आयु पूर्ण करने पर भी उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया था। 8 जून, 1969 को श्रीपाद दामोदर को पक्षाघात हुआ और 102 वर्ष की आयु पूर्ण कर वे 31 जुलाई, 1969 को स्वर्गवासी हुए।