Thakur Roshan Singh भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों में से एक थे। युवावस्था में वे अच्छे निशानेबाज और पहलवान थे। उनका जुड़ाव आर्य समाज के साथ रहा। असहयोग आंदोलन के दौरान बरेली गोलीकांड में दो साल की सजा हुई। छूटने के बाद राम प्रसाद बिस्मिला से मिले, जिन्हे एक निशानेबाज की आवश्यकता थी।
काकोरी कांड में उन्हे दोषी माना गाया और फांसी की सजा सुनाई गई। तो आइए आज इस आर्टिकल में हम आपको ठाकुर रोशन सिंह की जीवनी के बारे में बताएगे।
ठाकुर रोशन सिंह की जीवनी – Thakur Roshan Singh Biography Hindi

जन्म
ठाकुर रोशन सिंह का जन्म 22 जनवरी 1892 में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के नवादा गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह तथा उनकी माता का नाम कौशल्या देवी था। वे अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। हिन्दू धर्म, आर्य संस्कृति, भारतीय स्वाधीनता और क्रान्ति के विषय में ठाकुर रोशन सिंह सदैव पढ़ते व सुनते रहते थे। ईश्वर पर उनकी आगाध श्रद्धा थी। हिन्दी, संस्कृत, बंगला और अंग्रेज़ी इन सभी भाषाओं को सीखने के वे बराबर प्रयत्न करते रहते थे। स्वस्थ, लम्बे, तगड़े सबल शारीर के भीतर स्थिर उनका हृदय और मस्तिष्क भी उतना ही सबल और विशाल था।
योगदान
गाँधीजी के ‘असहयोग आन्दोलन’ के समय रोशन सिंह ने उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर और बरेली ज़िले के ग्रामीण क्षेत्र में अद्भुत योगदान दिया था।
जेल यात्रा
Thakur Roshan Singh 1929 के आस-पास ‘असहयोग आन्दोलन’ से पूरी तरह प्रभावित हो गए थे। वे देश सेवा की और झुके और अंतत: राम प्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आकर क्रांति पथ के यात्री बन गए। यह उनकी ब्रिटिश विरोधी और भारत भक्ति का ही प्रभाव था की वे बिस्मिल के साथ रहकर खतरनाक कामों में उत्साह पूर्वक भाग लेने लगे। ‘काकोरी काण्ड’ में भी वे सम्म्लित थे और उसी के आरोप में वे 26 सितंबर 1925 को गिरफ़्तार किये गए थे। और काकोरी कांड में उन्हे दोषी माना गाया और फांसी की सजा सुनाई गई।
मुखबिर बनाने की कोशिश
जेल जीवन में पुलिस ने उन्हें मुखबिर बनाने के लिए बहुत कोशिश की, लेकिन वे डिगे नहीं। चट्टान की तरह अपने सिद्धांतो पर दृढ रहे। ‘काकोरी काण्ड’ के सन्दर्भ में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की तरह ठाकुर रोशन सिंह को भी फ़ाँसी की सज़ा दी गई थी। यद्यपि लोगों का अनुमान था की उन्हें कारावास मिलेगा, पर वास्तव में उन्हें कीर्ति भी मिलनी थी और उसके लिए फ़ाँसी ही श्रेष्ठ माध्यम थी। फ़ाँसी की सज़ा सुनकर उन्होंने अदालत में ‘ओंकार’ का उच्चारण किया और फिर चुप हो गए। ‘ॐ’ मंत्र के वे अनन्य उपासक थे।
काकोरी षड्यंत्र
Thakur Roshan Singh काकोरी ट्रेन लुट में शामिल ही नही थे फिर भी उन्हें गिरफ्तार किया गया और मोहन लाल के खून में मौत की सजा सुनाई गयी। जब सजा सुनाई जा रही थी तब जज ने IPC के सेक्शन 121 (A) और 120 (B) के तहत पाँच साल की सजा सुनाई थी, और रोशन सिंह इंग्लिश शब्द “पाँच साल” आसानी से समझ सकते थे, सजा सुनने के बाद ठाकुर रोशन सिंह ने जज से उन्हें पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के गुनाह जितनी सजा ना सुनाने की सिफारिश भी की थी, लेकिन तभी विष्णु शरण दुब्लिश ने उनके कानो में कहा, “ठाकुर साहेब! आपको पंडित राम प्रसाद बिस्मिल जितनी ही सजा मिलेंगी” दुब्लिश के मुह से यह शब्द सुनते ही ठाकुर रोशन सिंह अपनी खुर्ची से उठ खड़े हुए और पंडित को गले लगाते हुए ख़ुशी से कहाँ, “ओये पंडित! क्या तुम फाँसी तक भी अकेले जाना चाहोंगे? ठाकुर अब तुम्हे और अकेला नही छोड़ना चाहता। यहाँ भी वह तुम्हारे ही साथ जायेंगा।”
शहादत
‘मलाका’ जेल में रोशन सिंह को आठ महीने तक बड़ा कष्टप्रद जीवन बिताना पड़ा। न जाने क्यों फ़ाँसी की सज़ा को क्रियान्वित करने में अंग्रेज़ अधिकारी बंदियों के साथ ऐसा अमानुषिक बर्ताव कर रहे थे। फ़ाँसी से पहली की रात ठाकुर रोशन सिंह कुछ घंटे सोए। फिर देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त होकर यथानियम स्नान-ध्यान किया। कुछ देर ‘गीता’ पाठ में लगाया, फिर पहरेदार से कहा- ‘चलो’। वह हैरत से देखने लगा कि यह कोई आदमी है या देवता।
उन्होंने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और ‘गीता’ हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फ़ाँसी घर की ओर चल दिए। फ़ाँसी के फंदे को चूमा, फिर जोर से तीन बार ‘वंदे मातरम्’ का उद्घोष किया। ‘वेद मंत्र’ का जाप करते हुए वे 19 दिसम्बर, 1927 को फंदे से झूल गए। उस समय वे इतने निर्विकार थे, जैसे कोई योगी सहज भाव से अपनी साधना कर रहा हो।
फांसी
रामप्रसाद बिस्मिला, अशफाक उल्ला के साथ Thakur Roshan Singh को 19 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद की नैनी जेल में फांसी दी गई।