कुंभनदास की जीवनी – Kumbhandas Biography Hindi

आज इस आर्टिकल में हम आपको कुंभनदास की जीवनी – Kumbhandas Biography Hindi के बारे में बताएंगे।

कुंभनदास की जीवनी – Kumbhandas Biography Hindi

कुंभनदास की जीवनी
कुंभनदास की जीवनी

Kumbhandas अष्टछाप के प्रसिद्ध कवियों में ही एक थे।

यह परमानंद दास जी के समकालीन थे।

कुंभदास का चरित “चौरासी वैष्णवन की वार्ता” के अनुसार संकलित किया जाता है।

कुंभदास पूरी तरह से विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छाओं से कोसों दूर थे।

एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर उन्हें फतेहपुर, सिकरी जाना पड़ा जहां उनका बड़ा सम्मान हुआ पर इसका उन्हें बराबर खेद ही रहा जैसा कि इनके पदों से व्यंजित होता है

संतन को कहा सीकरी सों काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।।

जन्म – कुंभनदास की जीवनी

अनुमान लगाया जाता है कि कुंभदास का जन्म संवत 1585 विक्रमी( 1468ई .)  में गोवर्धन, मथुरा के निकट जमुनावतो नामक ग्राम  में चैत्र कृष्ण एकादशी को हुआ था। कुंभ रास गोरवा क्षत्रिय थे और उनके पिता एक साधारण श्रेणी के व्यक्ति थे और खेती करके जीविका चलाते थे। कुंभदास ने पैतृक वृत्ति में ही आस्था रखी और किसानी का जीवन ही उन्हें अच्छा लगने लगा।  पारसोली में एक विशेष रूप से खेती का कार्य करते थे।  पैसो का अभाव अपने जीवन में हमेशा खटकता रहा पर उन्होंने किसी के सामने हाथ नहीं फैलाएं। भगवद्भक्ति ही उनकी संपत्ति थी। कुंभ दास का परिवार बड़ा था और खेती के माध्म से ही भी वे अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे।

उनके परिवार में उनकी पत्नी के अलावा कुंभ दास के 7 पुत्र व 7 पुत्र वधु है और एक विधवा भतीजी थी।

 दीक्षा

परम भक्त भगवद्भक्त,आदर्श गृहस्थ और महान व्यक्ति थे और इसके साथ ही वे त्यागी और महान संतोषी व्यक्ति भी थे.  उनके नेक चरित्र की विशेषता यह थी कि भगवान साक्षात प्रकट होकर उनके साथ सखा भाव की क्रीड़ाएं करते थे। वल्लभाचार्य जी ने उन्हें दीक्षा दी थी और वही उनके गुरु थे।  संवत् 1550 विक्रमी (1493ई .) में आचार्य की गोवर्धन यात्रा के समय उन्होंने ब्रह्मा संबंध लिया था। उनके दीक्षा काल के 15 साल बाद श्रीनाथजी की मूर्ति प्रकट हुई थी, आचार्य जी की आज्ञा से श्रीनाथ जी की सेवा में लीन हो गए। पुष्टिमार्ग में दीक्षित और श्री नाथ जी के मंदिर में कीर्तनकार के पद पर नियुक्त होने के बाद भी उन्होंने अपनी वृति नहीं छोड़ी और अंत तक गरीब अवस्था में ही अपने परिवार का पालन-पोषण करते रहे।

रचनाएं

  • कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या जो ‘राग-कल्पद्रुम ‘ ‘राग-रत्नाकर’ तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं। लेकिन इन पदों की संख्या अधिक है।
  • जन्माष्टमी, राधा की बधाई, पालना, धनतेरस, गोवर्द्धनपूजा, इन्हद्रमानभंग, संक्रान्ति, मल्हार, रथयात्रा, हिंडोला, पवित्रा, राखी वसन्त, धमार आदि के पद इसी प्रकार के है।
  • कृष्णलीला से सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास ने गोचार, छाप, भोज, बीरी, राजभोग, शयन आदि के पद रचे हैं जो नित्यसेवा से सम्बद्ध हैं।
  • इनके अतिरिक्त प्रभुरूप वर्णन, स्वामिनी रूप वर्णन, दान, मान, आसक्ति, सुरति, सुरतान्त, खण्डिता, विरह, मुरली रुक्मिणीहरण आदि विषयों से सम्बद्ध श्रृंगार के पद भी है।
  • कुम्भनदास ने गुरुभक्ति और गुरु के परिजनों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए भी कई पदों की रचना की। आचार्य जी की बधाई, गुसाईं जी की बधाई, गुसाईं जी के पालना आदि विषयों से सम्बद्ध पर इसी प्रकार के हैं। कुम्भनदास के पदों से  यह स्पष्ट है कि इनका दृष्टिकोण सूर और परमानन्द की अपेक्षा अधिक साम्प्रदायिक था। कवित्त की दृष्टि से इनकी रचना में कोई मौलिक विशेषताएँ नहीं हैं। उसे हम सूर का अनुकरण मात्र मान सकते हैं
  • कुम्भनदास के पदों का एक संग्रह ‘कुम्भनदास’ शीर्षक से श्रीविद्या विभाग, कांकरोली द्वारा प्रकाशित किया गया है।

शरीर त्याग – कुंभनदास की जीवनी

वृद्धावस्था में भी कुंभ रास नृत्य जमुनावतो के श्रीनाथजी के दर्शन के लिए गोवर्धन आया करते थे।

एक दिन संकर्षण कुण्डी पर आन्योदर के निकट वे ठहर गये। ‘अष्टछाप’ के प्रसिद्ध कवि चतुर्भुजदास जी, उनके छोटे पुत्र उनके साथ में थे। उन्होंने चतुर्भुजदास से कहा कि “अब घर चलकर क्या करना है। कुछ समय बाद शरीर ही छूटने वाला है।” गोसाईं विट्ठलनाथ जी उनके देहावसान के समय उपस्थित थे। गोसाईं जी ने पूछा कि “इस समय मन किस लीला में लगा है?” कुम्भनदास ने कहा- लाल तेरी चितवन चितहि चुरावै और इसके अनन्तर युगल स्वरूप की छवि के ध्यान में पद गाया-

रसिकनी रस में रहत गड़ी।

कनक बेलि बृषभानुनंदिनी स्याम तमाल चढ़ी।।

बिहरत श्रीगिरिधरन लाल सँग, कोने पाठ पढ़ी।

‘कुंभनदास’ प्रभु गोबरधनधर रति रस केलि बढ़ी।।”

उन्होंने शरीर छोड़ दिया।

गोसाईं जी ने करुण स्वर से श्रद्धांजलि अर्पित की कि ऐसे भगवदीय अन्तर्धान हो गये।

अब धरती पर सच्चे भगवद्भक्तों का तिरोधान होने वास्तव में कुम्भनदास जी नि:स्पृहता के प्रतीक थे, त्याग और तपस्या के
आदर्श थे, परम भगवदीय और सीधे-सादे गृहस्थ थे।

संवत 1639 विक्रमी तक वे एक सौ तेरह साल की उम्र पर्यन्त जीवित रहे।

मृत्यु – कुंभनदास की जीवनी

संवत् 1639 विक्रमी (1582ई .) में गोवर्धन में कुंभनदास जी की मृत्यु हुई थी।

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