हेमचन्द्र विक्रमादित्य की जीवनी – Hemchandra Vikramaditya Biography

आज इस आर्टिकल में हम आपको हेमचन्द्र विक्रमादित्य की जीवनी – Hemchandra Vikramaditya Hemu Biography Hindi के बारे में बताएगे।

हेमचन्द्र विक्रमादित्य की जीवनी – Hemchandra Vikramaditya Hemu Biography Hindi

हेमचन्द्र विक्रमादित्य की जीवनी

हेमचन्द्र विक्रमादित् भारत का आखिरी हिन्दू राजा था।

‘भारतीय इतिहास के वीर पुरुषों में से एक है।

“मध्यकालीन भारत का नेपोलियन” कहा जाने वाला हेमू अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर एक साधारण व्यापारी से प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष की पदवी तक पहुँचा था।

यह ऐतिहासिक सफर उसने एक अजेय महानायक के रूप में पूरा किया था।

उसके अपार पराक्रम तथा वीरता के कारण ही उसे ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि मिली थी।

हेमू शेरशाह सूरी का योग्य दीवान, कोषाध्यक्ष और सेनानायक था।

शेरशाह की सफलता में उसकी प्रबंध कुशलता और वीरता का सबसे बड़ा हाथ रहा था।

आर्थिक सूझ−बूझ में उसके समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था।

जन्म

हेमचंद्र का जन्म 1501 ई. में अलवर, राजस्थान में हुआ था। उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

उन्हे ‘हेमू‘के नाम से भी जाना जाता था।

उनके पिता का नाम राय पूरनमल था, जो उस वक़्त एक पुरोहित थे।

बाद के समय में मुग़लों द्वारा पुरोहितों को परेशान करने की वजह से राय पूरनमल रेवाड़ी, हरियाणा में आकर नमक का व्यवसाय करने लगे। अपनी छोटी आयु से ही हेमू शेरशाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट मुहैया करने के व्यवसाय में पिता का हाथ बंटाने लगे थे।

1540 ई. में शेरशाह सूरी ने बादशाह हुमायूँ को हरा कर क़ाबुल लौट जाने पर विवश कर दिया था।

हेमू ने उसी वक़्त रेवाड़ी में धातु से कई तरह के हथियार बनाने के काम की नीव रख दी थी, जो आज भी रेवाड़ी में पीतल, ताँबा, इस्पात के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।

उच्च पद और लोकप्रियता – हेमचन्द्र विक्रमादित्य की जीवनी

शेरशाह सूरी की1545 में मृत्यु हो जाने के बाद इस्लामशाह सूर ने उसकी गद्दी संभाली।

इस्लामशाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचान लिया और उसे व्यापार और वित्त संबधी कार्यों के लिए अपना निजी सलाहकार नियुक्त कर लिया।

हेमचंद्र ने भी अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लामशाह सूर का विश्वास का पात्र बन गया।

इस्लामशाह हेमू से हर मसले पर राय लेने लगा था

हेमू के काम से खुश होकर उसने हेमू को “दरोगा-ए-चौकी” बना दिया और उच्च पद प्रदान किया।

बाद में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसके बारह वर्ष के अल्प वयस्क पुत्र फ़िरोजशाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिलशाह सूरी ने मार दिया और राजगद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया।आदिलशाह ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया।आदिलशाह एक अय्याश और शराबी व्यक्ति था। उसे शासन की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी।

उस समय सम्पूर्ण अफ़ग़ान शासन का भार हेमू के ही हाथ में आ गया था।

सेना के भीतर से भी हेमू का विरोध हुआ, लेकिन उसने अपने सारे विरोधियों को हरा कर शांत कर दिया।

उस समय तक हेमू की सेना के अफ़ग़ान सैनिक, जिनमे से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था, अपने आप को भारत का रहने वाला मानने लग गए थे और वे मुग़ल शासकों को विदेशी मानते थे।

इसी वजह से हेमू हिन्दू और अफ़ग़ान दोनों में ही काफ़ी लोकप्रिय हो गया था।

दिल्ली पर अधिकार

हुमायूँ, जो कि पहले 1540 में शेरशाह सूरी द्वारा पराजित कर खदेड़ दिया गया था ।

उसने दुबारा हमला करके शेरशाह सूरी के भाई को युद्ध में परास्त किया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया।

इस समय अफ़ग़ान सरदार आपस में ही संघर्ष कर रहे थे, और हेमू बंगाल में अव्यवस्था को दूर करने में व्यस्त था।

परंतु उस समय सात महीने के बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई। और तब हेमू ने दिल्ली की तरफ़ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की कई रियासतों को जीत हासिल कि ।

आगरा में मुग़ल सेनानायक इस्कंदर ख़ान उज़्बेग को जब यह पता चला की हेमू उनकी तरफ़ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया।

7 अक्टूबर, 1556 . में हेमू ने तरदी बेग ख़ान (मुग़ल) को हरा कर दिल्ली पर विजय हासिल की।

यहीं पर हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा गया।

लगभग तीन शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बाद पहली बार कोई हिन्दू दिल्ली का राजा बना

भले ही हेमू का जन्म ब्राह्मण समाज में हुआ और उसका पालन-पोषण भी पूरे धार्मिक तरीके से हुआ था, लेकिन वह सभी धर्मों को समान मानता था।

इसीलिए उसकी सेना के अफ़ग़ान अधिकारी उसको पूरी इज्ज़त देते थे और इसलिए भी क्योकि वह एक कुशल सेनानायक साबित हो चूका था

मुग़लों से युद्ध – हेमचन्द्र विक्रमादित्य की जीवनी

पानीपत के युद्ध से पहले अकबर के कई सेनापति उसे हेमू से युद्ध करने के लिए मना कर चुके थे, लेकिन बैरम ख़ाँ, जो अकबर का संरक्षक भी था, उसने अकबर को दिल्ली पर नियंत्रण के लिए हेमू से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया।

लेकिन जब हेमू का मुग़लों से युद्ध हुआ तो पश्चिम से बैरम ख़ाँ के नेतृत्व में अकबर ने उसे रोका।

5 नवम्बर, 1556  में पानीपत के मैदान में हेमू और मुग़ल सेना में युद्ध हुआ। पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में हेमू की विशाल सेना के सामने मुग़ल सेना कुछ भी नहीं थी।

स्वयं हेमू ‘हवाई’ नाम के एक विशाल हाथी पर सवार होकर सैन्य संचालन कर रहा था।मुग़ल सेना में दहशत थी।

बैरम ख़ाँ ने अकबर को सुरक्षित स्थान पर छोड़ा और वह खुद सेना लेकर आगे बढ़ा।

हार – हेमचन्द्र विक्रमादित्य की जीवनी

युद्ध के मैदान में हेमू ने अपने 1500 हाथियों को मध्य भाग में बढ़ाया।

इससे मुग़ल सेना में गड़बड़ी फैल गई और ऐसा जान पड़ा कि हेमू की सेना मुग़लों को रौंद देगी।

एक समय ऐसे लगने लगा कि हेमू की जीत निश्चित है।

लेकिन उसी समय बैरम ख़ाँ की कूटनीति चल गई और उसने युद्ध का पासा पलट दिया।

बैरम ख़ाँ ने अपने कुछ चुने हुए सैनिकों को हेमू की आँख को निशाना बनाने का आदेश दिया। सैनिकों ने यही किया और हेमू की एक आँख में तीर लगा और वह हाथी से नीचे गिर गया। सेना में भगदड़ मच गई।

हेमू का महावत उसके हाथी ‘हवाई’ को भगाकर ले जा रहा था, लेकिन मुग़ल सैनिकों ने उसे पकड़ लिया।

मृत्यु

हेमू को गिरफ्तार करके अकबर के सामने लाया गया, तब बैरम ख़ाँ ने अकबर से कहा कि- “हजरत इसे मारकर ‘ग़ाज़ी’ की उपाधि धारण करें”। लेकिन अकबर इस काम के लिए राजी नहीं हुआ, तब बाद में बैरम ख़ाँ ने ही हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया।

हेमू की हवेली – हेमचन्द्र विक्रमादित्य की जीवनी

भारत के आखिरी हिन्दू सम्राट और पानीपत की दूसरी लड़ाई के नायक हेमचन्द्र विक्रमादित्य की 600 साल पुरानी हवेली वर्तमान में जर्जर हाल में है।

रेवाड़ी के कुतुबपुर मुहल्ले में स्थित इस हवेली की हालत दयनीय है।

इतिहास की यह धरोहर समाप्त होने के कगार पर है।

हेमू को “मध्य काल का नैपोलियन” कहा जाता है।

उसके गौरवपूर्ण पहलू की तमाम स्मृतियाँ इस हवेली से जुड़ी हैं।

ढाई मंजिली हवेली प्राचीन कलात्मक कारीगीरी की जीती-जागती मिसाल है।

कलात्मक मुख्यद्वार, नक़्क़ाशी से सजी दीवारें तथा दुर्लभ पत्थरों पर आकर्षक कारीगीरी अनायास ही प्रभावित करती है।

उसके अन्दर प्रवेश करते ही वर्गाकार चौक स्वागत करता है।

चारों ओर कलात्मक नक़्क़ाशी मन मोह लेती है।

बरामदे व कक्ष की विशालता से कभी रही इसकी भव्यता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

प्रथम तल पर कुल मिलाकर छोटे-बड़े एक दर्जन कक्ष और चार दलान हैं।

एक कक्षनुमा रसोई प्रतीत होती है।

इसमें दो-तीन तहखाने भी हैं, जिन्हें अब सफाई के बाद दरवाज़े लगाकर बंद कर दिया गया है।

दिलचस्प पहलू तो यह है कि पहले तल पर कहीं कोई खिड़की नजर नहीं आती, जबकि पहले इसके आगे व पीछे आंगन भी होते थे। ऐसा संभव है कि यह सुरक्षा पक्ष को लेकर किया गया होगा।

इस तीस फुटी हवेली का पहला तल लगभग 900 से 1000 साल पुराना बताया जाता है।

हवेली का द्वितीय

इस ऐतिहासिक हवेली का द्वितीय तल ख़ास प्रकार की ईंटों से बना हुआ है, जिन्हें ‘लखौरी’ ईंटें कहा जाता है।

पाँच इंच लंबी, साढ़े तीन इंच चौड़ी तथा डेढ़ इंच मोटी ईंटों की कलात्मक चिनाई में पुर्तग़ाली शैली के प्रमाण भी मौजूद हैं।

यह पूरा मरम्मत कार्य 1540 ई. का है।

इस तल पर बने दो वर्गाकार सभागार अपनी ओर ध्यान खींचते हैं, जिनमें से एक की छत गिर चुकी है तथा दूसरा हॉल आज भी ठीक स्थिति में है।सबसे ऊपर का तल खुला हुआ है,लेकिन इसकी चार दीवारी सात-आठ फुट सुरक्षा कवच प्रतीत होती है। सोलहवीं शताब्दी के महानतम हिन्दू योद्धा कहे जाने वाले हेमू के पिता राय पूरनमल सन 1516 ई. में राजस्थान के अलवर से रेवाड़ी आकर कुतुबपुर मोहल्ले में रहने लगे थे

इसे भी पढ़े कृष्ण दास की जीवनी – Krishana Daas Biography Hindi

Leave a Comment